चित्र:गूगल से साभार |
पढ़ाई के दिनों में एक अंग्रेजी उक्ति कहीं पढ़ी थी—मैन इज़ द वाइज़ेस्ट एनीमल। इसमें चालाकी
यह थी कि लेखक ने वाइज़ेस्ट यानी सर्वाधिक बुद्धिमान कहकर आदमी को ‘पशु’ कहे जाने की अपनी धूर्तता को ढकने का
प्रयास किया था। गाहे-बगाहे यह भी पढ़ने-सुनने को मिल जाता है कि—ओनली फिटेस्ट विल सरवाइव। मुझे यह जुमला
भी लगातार चुभता रहा हैं और अपने ढंग से मैं इन दोनों का जवाब भी अपने भीतर सँजोता
रहा हूँ। फिर भी, लगता यही रहा है कि उपर्युक्त बातों को कहने व प्रचारित करने
वाले लोग मानवीयता की भावना से दूर हैं और मनुष्य की अपार क्षमताओं के इतिहास की
अनदेखी कर रहे हैं। निश्चय ही उपर्युक्त दोनों जुमले डॉ॰ दीप्ति को भी कहीं गहरे
चुभे होंगे अन्यथा यह कृति इतनी तर्कशीलता के साथ सामने न आती।
डॉ॰ श्याम सुन्दर दीप्ति द्वारा लिखित ‘बेहतर हैं हम’ विचारोत्तेजक लेखमाला है। डॉ॰ दीप्ति
ने आधुनिक जीवविज्ञान, समाजविज्ञान तथा मनोविज्ञान सम्मत स्थापनाओं के आधार पर यह
सिद्ध करने का प्रयास किया है कि मानवों और जानवरों के बीच न केवल शारीरिक बल्कि बौद्धिक
और मानसिक अन्तर भी है। प्राकृतिक रूप से दो अवयव धरती के हर प्राणी के शरीर में
मौजूद हैं—मस्तिष्क और हृदय। डॉ॰
दीप्ति ने उदाहरण सहित सिद्ध किया है कि मानव के पास दुनियाभर में उपलब्ध अन्य
जीवों की तुलना में बड़ा और भारी मस्तिष्क है जिसकी वज़ह से वह उनके मुकाबले बेहतर
सोचने की क्षमता रखता है। लेकिन उन्होंने कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया कि अन्य
जीवों के हृदय की तुलना में मानव के हृदय का आकार, वज़न और क्षमता कितनी हैं।
‘ओनली फिटेस्ट विल सरवाइव’ सरीखे सूत्र तय करने वाली सोच पाशविक और
असामाजिक वृत्ति की परिचायक हैं। ऐसे लोग इस तथ्य की लगातार अनदेखी करते हैं कि
सभ्य सामाजिक होने तक का सफर मनुष्य ने शारीरिक शक्ति के बल पर नहीं
बुद्धि-चातुर्य और मानवीय भावना के बल पर तय किया है। डॉ॰ दीप्ति ने बड़े सधे अंदाज़
में इस विषय पर अपनी कलम चलाई है और ऐसी सोच का तार्किक उत्तर दिया है।
उन्होंने अँगूठायुक्त होने को मानव की
प्रमुख विशिष्टता माना है। इसे पढ़कर न जाने क्यों मुझे एकलव्य और द्रोणाचार्य का
प्रकरण याद हो आया। मुझे लगा कि पुरातन ब्राह्मणवाद ‘अँगूठे’ के महत्व को जानता था और सामन्तवाद को
बचाए रखने की खातिर विकासशील जनजातियों के अँगूठे कटवाकर उन्हें पाशविक जीवन जीने
को विवश करते रहने की साजिश रचता था।
डॉ॰ दीप्ति ने ‘परमात्मा’ को एक साजिशी कल्पना बताया है। ‘परमात्मा’ मानवीय कल्पना है, इससे शब्दश: सहमत हुआ
जा सकता है; लेकिन यह परा-कल्पना है, अपरा नहीं। इसका उद्भव नकारात्मक उद्देश्य से
हुआ हो, ऐसा नहीं है। हाँ, लम्बे समय से ‘कुछ पागलों ने महफिल बना दी पागलखाना’ वाली स्थिति अवश्य है। कुछ विध्वंसकों
के हाथों में पड़कर यह सामाजिक अहित का हेतु बन गई है। धर्म के कुछ व्यापारियों ने इसे
लूट और अन्याय का साधन बना लिया है और इसमें सहयोग करते हैं सामंतवादी वृत्ति के
लठैत और मठैत। शास्त्र कहता है कि हार्दिक दृष्टि से स्वच्छ और मानसिक दृष्टि से
स्वस्थ व्यक्ति यदि ‘परमात्मा’ की कल्पना से असहमत हो तो भी वह ‘आस्तिक’ है क्योंकि वह ‘मानवता’ का पक्षधर है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा
गया है—
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो
विजिन्द्रिय:।
युक्त इत्युच्यते योगी
समलोष्टाश्मकाञ्चन:॥
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु
समबुद्धिर्विशिष्यते ॥8 व 9 अध्याय 6॥
अर्थात् जिस व्यक्ति का अन्त:करण
ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ
भली-भाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना समान है; वह योगी है,
ऐसा कहा जाता है। द्वेष करने वालों के तथा बन्धुओं के साथ भी स्वार्थरहित सबका हित
करने वाला, पक्षपातरहित, दोनों पक्षों की भलाई चाहने वाला तथा पापियों में भी समान
भाव रखने वाला व्यक्ति अत्यन्त श्रेष्ठ है।
दु:खद यह है कि धर्म की विज्ञान-सम्मत
व्याख्या कर सकने वाले लोगों की तुलना में झाँझ-मँजीरा लेकर उसका कीर्तन करके
लोगों को नशे की हालत में पहुँचाने और लूटने-ठगने वाले ‘बापुओं’ और ‘महाराजों’ की संख्या में दिनों-दिन वृद्धि हो रही
है। प्रकारान्तर से यह पुस्तक धर्म की दुकानें खोले बैठे ऐसे ठगों द्वारा किए जाने
वाले मानसिक शोषण से बचने के प्रति पाठक को सावधान करती है, उसे तर्कशील बनाने का
प्रयास करती है।
विषय को बोझिलता से बचाए रखने की दृष्टि
से बीच-बीच में डॉ॰ दीप्ति ने कुछ कविताओं और कुछ लघुकथाओं का भी प्रयोग किया है।
वे विषय का यान्त्रिक विवेचन नहीं करतीं बल्कि लेखक के हृदय की मानवीय भावनाओं से
पाठक का परिचय कराती चलती हैं। इससे सिद्ध होता है कि डॉ॰ दीप्ति का प्रयास पुस्तक
को मात्र बौद्धिक व्यायाम तक सीमित न रखकर पाठक के भावनात्मक पहलू को भी छूते रहने
का है। समाज में परस्पर सदाशयता कायम रखने के लिए अति आवश्यक है कि हम न केवल यान्त्रिक
मानसिकता से बल्कि यान्त्रिक तार्किकता से भी उबरें। सामाजिकों को स्वस्थ
भावनात्मक स्पर्श देते रहें।
[डॉ॰ श्याम सुन्दर दीप्ति की
पुस्तक ‘बेहतर हैं हम’ की भूमिका]